यह शब्द बचपन में कितना अच्छा लगता था लगता था कि जैसे मास्टर से
ज्यादा पॉवरफुल पोस्ट दुनिया में कोई है ही नहीं, क्या रुतबा रहता है जब
जिसको चाहा दो थप्पड़ लगा दिए, जिस बच्चे को जो हुक्म दे दिया वह दे दिया,
जरा सा क्लास में चिल्ल पों सुनाई दी नहीं कि सबको मुर्गा बनने का फरमान
जारी हो गया, मज़ाल है कोई नाफरमानी कर जाए भला ..
घर
में मम्मी-पापा तक कितना रुतबा मानते थे मास्टर साहब कहीं नाम न काट दे,
जो भी स्कूल के सामने से गुजरता था वह भला मास्टर साहब से नमस्कार किये
बिना कहाँ गुजरता था ..
मास्टर साहब जरा दूसरे
क्लास में व्यस्त होते तो लगता अपने क्लास में रामराज्य आ गया उनकी
उपस्थिति मात्र से कितना डर लगता था । एक ओर हम सब डरे डरे से रहते थे और
दूजी ओर मास्टर साहब .. क्या रंगबाजी थी उनकी जैसे शहंशाह हो इस स्कूल रूपी
रियासत के ..
तभी धोखे में कई बार मन ही मन
मुराद मांग ली होगी की बड़े होकर हम भी मास्टर बनेंगे ..पर क्या पता था की
बचपन की नासमझ मुराद वाकई एक दिन सच हो जायेगी ..
मास्टर तो हम बन गए पर बने प्राइमरी/जूनियर के मास्टर ..
सपना
तो कुछ साकार होता दिखने लगा ,स्कूल के नाम पर दो लोगों का स्टाफ और ढेर
सारे बच्चे ..लगा की अब पूरी मास्टरी चलेगी ..गाँव में लोग इज़्ज़त से बात
करेंगे ,बच्चे ,जवान आते जाते नमस्कार करेंगे ..पर कुछ ही दिन की नौकरी के
बाद जो हकीकत से पाला पड़ा वह बिलकुल अलग था ..
मास्टर
साहब की इज़्ज़त और रुतबा तो उसी दिन धुल गया था जिस दिन बोरी में किताबें
लेकर किसी तरह गिरते पड़ते स्कूल पहुंचाई थी इसके बाद mdm के आलू और सब्जी
से भरा झोला टाँगे रोज़ जब स्कूल पहुँचते वो अलग, गैस सिलेंडर जिस दिन लाना
ले जाना होता उस दिन गंदे कपडे पहने ही दिन गुजरा करता ..
इधर
कुछ दिन से इस पर भी बड़ी सख्ती चल रही थी कि यदि किसी विद्यालय में घास
बड़ी पाई गयी ,शौचालय गन्दा पाया गया, कमरो में जाला पाया गया तो कार्यवाही
तय मानिए ..और कार्यवाही भी क्या सस्पेंड ..
बेसिक की नौकरी में छुटिटयां भले न तय हो, रविवार की छुट्टी
पल्स पोलियो नहीं तो फिर blo के लिए न्यौछावर होना तय मानिए, वहीं 15
अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर आदि आदि तो आपको बच्चों के बीच मनाने ही चाहिए
.और हाँ उनमें जल्दी यानि 3/4 घंटे में निपटने की न सोचना, पूरे दिन का
कार्यक्रम का आदेश आपके लिए पहले से ही तय कर दिया जाएगा और कहीं जल्दी
ताला तो नहीं लगा दिया इसकी निगरानी के लिए अंगौछा धारी नेताटाइप गाँव के
नवयुवक, बुजुर्ग के साथ छुटभैया पत्रकार कैमरे लिए चक्कर मार ही लेंगे ..
हाँ
तो देखिये बातों बातों में असली बात तो भूल ही गया,मैं यह कह रहा था की
बेसिक में छुट्टियां, वेतन मिलने की तारीख आदि भले ही न तय हो पर सजा तय
है .. हर बात की एक सजा-- "निलंबित यानि सस्पेंड "
सुबह 20 मिनट लेट पहुंचे - "सस्पेंड"
आप एकल विद्यालय में हैं ,सुबह कुछ ऐसा हुआ अचानक छुट्टी की जरूरत पड़ गयी ,विद्यालय बंद रहा - "सस्पेंड"
गेंहू, धान की बोवाई, कटाई, मेला, सहालग, त्यौहार के आगे -पीछे बच्चे कम संख्या में उपस्थित हुए - "सस्पेंड"
बच्चे किताब नहीं पढ़ पाये - "सस्पेंड"
बच्चे गिनती नहीं सुना पाये - "सस्पेंड"
बच्चे पहाड़ा नहीं सुना पाये - "सस्पेंड"
बच्चे "उज्ज्वल", "आशीर्वाद" नहीं लिख पाये - "सस्पेंड"
MDM मीनू के अनुसार नहीं बना - "सस्पेंड"
MDM नहीं बना - "सस्पेंड"
फल नहीं बंटा - "सस्पेंड"
आदि आदि आदि ...
मतलब बस यह कि कोई गाड़ी आकर रुकी नहीं कि आप स्वयं को सस्पेंड मान लें
..बल्कि कभी - कभी तो यह लगता है कि किसी अधिकारी या अधिकारी टाइप के आने
पर कोई कोशिश करना भी व्यर्थ है आप उन साहब के इंट्री करते ही अपना झोला
झंडा उठाकर उनको विद्यालय की चाभियां देते हुए हाथ जोड़कर साफ़ साफ़ पूछ लें
कि -"साहब आप ये चाभियां लीजिये और हमें इतना भर बता दीजिये की सस्पेंसन
लेटर लेने कब आ जाये .."
क्योंकि आप कहाँ - कहाँ और किस -किस मापदंड पर खरे उतारेंगे वैसे भी अंत में होना यही है ।
तो
भैया हाल यह है कि सस्पेंड होने का डर इस कदर दिलो -दिमाग पर छाया रहता है
कि अधिकांश स्कूलों के हेड मास्टर या इंचार्ज दिन भर बरामदे में एक नज़र
गेट की ओर गड़ाये बैठे रहते हैं कि कहीं कोई चेकिंग करने आ तो नहीं गया ..और
यदि किसी समय कक्षा में व्यस्त भी हुए तो उनके कान में किसी मोटर साईकिल
या कार की आवाज़ सुनायी पड़ते ही उनका दिल ऐसे घबरा जाता है की अब पूछिये मत
.और यदि वह गेट की तरफ मुड़ गयी तब तो चेहरा ऐसा स्याह सफ़ेद की काटो तो खून
नहीं ..
कुल मिलाकर अब जाकर यह समझ आया कि बचपन की समझ वाकई नासमझ होती है तब की
आँखों में बसा दुनिया के सबसे ताकतवर इंसान मास्टर साहब आज चूहे से भी
छोटे नज़र आते हैं जो एक एक पल डर डर के काटते हैं और जिनके लिए छुट्टी की
घंटी एक ठंडी सांस के साथ यह अहसास देती है कि चलो आज का दिन कट गया।
मास्टर बनने के बाद का डर
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Oleh
Harshit