सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

आत्ममंथन - अध्यापक में कुछ अवगुण

आत्ममंथन - अध्यापक में कुछ अवगुण

आत्ममंथन

      अध्यापक में कुछ अवगुण

        "आओ मिल कर दूर करें"

1). प्रातःकालीन सभा के लिए, या लंच ऑफ करने के लिए घण्टी समय पर लगवानी है,इसका ध्यान कुछ अध्यापक बिलकुल नहीं रखते । उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि घण्टी समय पर लगी या नहीं । उन्हें ये लगता है कि ये सिर्फ हेड को ध्यान रखना है या उन 1-2 अध्यापक का काम है जो लगभग स्कूल की सभी व्यवस्थाओं को हर समय दुरुस्त करने का काम करते हैं ।

2). कुछ अध्यापक ऐसे होते हैं,जिन्हें ये तो पता है कि मुझे 8:30 बजे से 1 भी मिनिट पहले स्कूल नही पहुँचना,दूसरी ओर 3:00 बजे से पहले ही हाजिरी रजिस्टर/बायोमेट्रिक के पास आकर बैठ जाना है । 1 मिनट भी फ़ालतू समय स्कूल को नहीं देना । लेकिन दूसरी तरफ यही अध्यापक तब भी बड़े आराम से बैठे गप्पे मार रहे होते हैं जबकि लंच ब्रेक ऑफ होने की घण्टी बज चुकी होती है । वो इतना जहमत नहीं उठाते कि अब सभी बच्चों को कक्षा में बैठा दें । ये काम भी 1-2 अध्यापकों या स्कूल मुखिया को ही करना पड़ता है ।

3). कुछ अध्यापक प्रातःकालीन सभा में झुण्ड में एक तरफ अपने हाथ बांधे इस तरह खड़े हो जाएंगे जैसे कि वो प्रातःकालीन सभा में मेहमान हैं । अपनी कक्षा के बच्चों की लाइन लगवाना,प्रातःकालीन सभा में कुछ ज्ञानवर्धक बोलना या बच्चों को कुछ आदतें सिखाना,ऐसा ख्याल इनके मन में आना न के बराबर है ।

4). कुछ अध्यापक नहीं चाहते कि प्रातःकालीन सभा में सभी गतिविधियाँ हों । वे चाहते हैं कि बस प्रार्थना और राष्ट्रगान कराके बच्चों को कक्षाओं में भेज दो । कोई अध्यापक प्रातःकालीन सभा को बढ़िया तरीके से संचालित करता है तो ये रुचि न दिखाने वाले अध्यापक उससे बड़े परेशान रहते हैं  । ये मन ही मन में यही सोचते हैं कि कब ये यंहा से जाएगा ! अगर कभी प्रातःकालीन सभा लम्बी हो भी गयी तो ये छाया और कुर्सी ढूंढते फिरते हैं । इतनी भी हिम्मत नहीं होती कि ये कुछ देर खड़े हो सकें ।

5). कुछ अध्यापक ऐसे मतलबी हैं जब इनको खुद का काम निकलवाना होता है तो बहुत मीठे बन जाते हैं और स्कूल मुखिया का भी जमकर इस्तेमाल करते हैं लेकिन जब स्कूल मुखिया उनसे ये अपेक्षा रखता है कि वो स्कूल में अपने कार्य के प्रति पूरी निष्ठा से काम करें तब इनका सहयोग न के बराबर होता है । तब न तो वो स्कूल मुखिया को कुछ समझते हैं और न ही कोई कार्य ढंग से करते हैं । मुखिया को सम्मान देना तो दूर की बात कभी कभी दुर्व्यवहार करने से भी पीछे नहीं रहते ।

6). कुछ अध्यापक होते तो हैं किसी कक्षा के इंचार्ज,लेकिन उनका हाजिरी रजिस्टर बड़ा अस्त-व्यस्त होता है । कितने बच्चे हैं,किसका नाम कटा है,कौन आता है आदि-आदि कुछ नहीं पता होता । उससे ज्यादा ज्ञान उनकी कक्षा के बच्चों को होता है ।

7). कुछ अध्यापक किसी कक्षा के इंचार्ज,दाखिला रजिस्टर के इंचार्ज या रिजल्ट रजिस्टर के इंचार्ज होते हैं लेकिन उसमें भी लापरवाही बरतते हैं । खुद उनको दुरुस्त रखते नहीं,बल्कि उनको पूरा करने के लिए भी वो विद्यार्थियों की या अन्य साथी अध्यापक की मदद लेते हैं । उनकी इस तरह की लापरवाही से बाद में स्कूल को बहुत बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है ।

8). कुछ अध्यापक अपने आपको तो बहुत सलीके से रखेंगे,अच्छे कपड़े पहनेंगे,खुद को थोड़ी सी मिटटी भी नहीं लगने देंगे,चाक को तो जैसे छूने से उनको एलर्जी ही हो जायेगी । लेकिन विद्यार्थियों की,कक्षा-कक्ष की या स्कूल की साफ़ सफाई से उन्हें कोई लेना देना नहीं । खुद के लिए कुर्सी और मेज जरूर चाहिए लेकिन बच्चों को जब चाहा वंही बैठा दिया चाहे धुल-मिटटी हो या आसपास गन्दगी । विद्यार्थियों से भी दूरी बनाकर रखेंगे जाने क्यों ?

9). कुछ अध्यापक सारा सारा दिन निकाल देते हैं लेकिन बच्चों को एक अक्षर तक नहीं सिखाते । या तो वो कक्षा में ही नहीं जाते और चले गए तो भी सिवाए बैठे बैठे कुर्सी तोड़ने के कुछ नहीं करते ।

10). कुछ पढ़ाने के नाम पर भी औपचारिकता करते हैं । बच्चों को कभी भी कुछ सिखाएंगे नहीं और न ही पढ़ाएंगे । सीधे कह देंगे कि प्रश्न-उत्तर याद कर लो ।

उपरोक्त कमियां सिर्फ एक ही स्कूल के अध्यापकों में नहीं  है,बल्कि कई स्कूलों में ऐसा बुरा हाल है । स्कूलों की ऐसी दुर्गति करने में किसी एक का नहीं बल्कि कई अध्यापकों का हाथ है चाहे वो गेस्ट  टीचर हो  बीएड वाले हो या रेगुलर टीचर हो, चाहे महिला हो या पुरुष ।

 ऐसा नहीं है कि इस तरह की कमियों वाले अध्यापकों की हरकतों को हर कोई स्कूल मुखिया नजरअंदाज कर देता है । कई स्कूल मुखिया ऐसे हैं जिन्होंने बहुत सुधार की कोशिश की लेकिन बदले में उन्होंने बहुत सहना पड़ा ।

आखिर में जब इस तरह के अध्यापक मानवीयता के बिलकुल निम्न स्तर पर आ जाते हैं तब स्कूल मुखिया भी ये सोचता है कि कब मुझे इस स्कूल से मुक्ति मिले और कोई अच्छी सी जगह ट्रान्सफर हो

ये दस(10) बिन्दु कुछ अध्यापकों को शायद बहुत ज्यादा चुभें और ये भी विश्वास है कि उन्हीं को चुभेंगे जिनके अंदर ऐसे अवगुण हैं ।
(एक आदर्श अध्यापक की पोस्ट को पुनः भेज रहा हूं)
आओ हम सभी आदर्श टीचर बन कर दिखाएं...

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

नौकरी करने के मूल मंत्र






बने रहो पगला,
काम करेगा अगला |

बने रहो कूल,
सेलरी लेओ फुल |

जिसने ली टेंशन,
उसकी वाइफ लेगी पेंशन |

काम से डरो नहीं,
और काम को करो नहीं |

काम करो या ना करो,
काम की फिक्र जरूर करो |

फिक्र करो या ना करो,
फिक्र का जिक्र साहब से जरूर करो |

जो काम करे उसे ऊँगली करो,
जो काम ना करे उसकी चुगली करो |




रविवार, 5 नवंबर 2017

बेसिक परिवर्तन बेहद ज़रूरी

बेसिक परिवर्तन बेहद ज़रूरी

एक रुपये में तीन अठन्नी भुन जाती हैं 'बेसिक' में।
मिल जाती हैं सभी खूबियाँ एक अकेले शिक्षक में।
वही पढ़ाये, वही खिलाये, राशन ढोकर लाये।
दूध पिलाये, फल बंटवाये, ईंधन स्वयं जुटाये।
टेंडर लेकर, दर्जी चुनकर, कपड़े भी सिलवाये।
साफ़-सफाई, रंग-पुताई, बिल्डिंग तक बनवाये।
बिजली, पंखे, नल, शौचालय, सबको वही रखाये।
फर्श और खिड़की-दरवाजे, जब-तब सही कराये।
सत्यापन, सर्वेक्षण-ड्यूटी, जनगणना को जाये।
वोट बनाने घर-घर घूमे, निर्वाचन करवाये।
कभी रसोइया से उलझे, कभी स्वच्छकार टकराये।
शाला मानो खाला का घर, जो मर्जी घुस आये।
घर-खेतों में जाकर बच्चे टेर-टेरकर लाये।
बच्चों से ज़्यादा उनके अभिभावक को समझाये।
मीटिंग, रैली, पल्स-पोलियो, ऑडिट भी करवाये।
भाँति-भाँति की सूचनाओं को जैसे-तैसे जुटाये।
 
ढेर रजिस्टर लेकर बैठे, कॉलम भरता जाये।
आदेशों के चक्रव्यूह में घिरता-पिसता जाये।
बच्चों को एकाग्रचित्त से शिक्षक पढ़ा न पाये।
हसरत दिल में ही रह जाती, न्याय नहीं कर पाये।
उस पर भी अधिकारी आकर कमियां बीस गिनाये।
मनोव्यथा को नहीं समझकर दिल को और दुखाये।
जीभ के जैसा मानो शिक्षक, बत्तीसी के बीच।
जैसे - तैसे जान बचाकर बचपन रहा सींच।
प्राइवेट स्कूलों में ऑफिस व्यर्थ नहीं होता है।
शिक्षक केवल शिक्षण करने को स्वतंत्र होता है।
और वहाँ पर पीरियड-वाइज़ एक ही कक्षा लेता शिक्षक।
किन्तु यहाँ पर प्रायः दिन-भर कई कक्षाएं, एक ही शिक्षक।
वहाँ फेल करने की नीति, एक कक्ष में एक से बच्चे।
यहाँ उम्र से दाखिल होते, ऊँची कक्षा बच्चे कच्चे।
और एक कड़वी सच्चाई, शिक्षक भी स्वीकार करें।
कमी हमारी ओर से भी है, खुद में स्वयं सुधार करें।
समय का पालन, लगन से शिक्षण, इसमें ढील न छोड़ें।
जो कुछ भी हम कर सकते, उसमें बहाने न ओढ़ें।
शिक्षा क्षेत्र के वित्त प्रबंधन में भी दोष है दिखता।
कुल खर्चे में शिक्षक-वेतन 'अति-आनुपातिक' लगता।
उसमें से यदि पाँच फ़ीसदी भी विद्यालय में लगे।
काफी सूरत बदलेगी, किस्मत बच्चों की जगे।
और अंत में कहकर इतना बात करें हम पूरी।
बेसिक में 'बेसिक' परिवर्तन बेहद आज ज़रूरी।


प्रशांत अग्रवाल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
जिला बरेली (उ.प्र.)।

मास्टर बनने के बाद का डर

 
यह शब्द बचपन में कितना अच्छा लगता था लगता था कि जैसे मास्टर से ज्यादा पॉवरफुल पोस्ट दुनिया में कोई है ही नहीं, क्या रुतबा रहता है जब जिसको चाहा दो थप्पड़ लगा दिए, जिस बच्चे को जो हुक्म दे दिया वह दे दिया, जरा सा क्लास में चिल्ल पों सुनाई दी नहीं कि सबको मुर्गा बनने का  फरमान जारी हो गया, मज़ाल है कोई नाफरमानी कर जाए भला ..

घर में मम्मी-पापा तक कितना रुतबा मानते थे मास्टर साहब कहीं नाम न काट दे, जो भी स्कूल के सामने से गुजरता था वह भला मास्टर साहब से नमस्कार किये बिना कहाँ गुजरता था ..

मास्टर साहब जरा दूसरे क्लास में व्यस्त होते तो लगता अपने क्लास में रामराज्य आ गया उनकी उपस्थिति मात्र से कितना डर लगता था । एक ओर हम सब डरे डरे से रहते थे और दूजी ओर मास्टर साहब .. क्या रंगबाजी थी उनकी जैसे शहंशाह हो इस स्कूल रूपी रियासत के ..

तभी धोखे में कई बार मन ही मन मुराद मांग ली होगी की बड़े होकर हम भी मास्टर बनेंगे ..पर क्या पता था की बचपन की नासमझ मुराद वाकई एक दिन सच हो जायेगी ..

मास्टर तो हम बन गए पर बने प्राइमरी/जूनियर के मास्टर ..

सपना तो कुछ साकार होता दिखने लगा ,स्कूल के नाम पर दो लोगों का स्टाफ और ढेर सारे बच्चे ..लगा की अब पूरी मास्टरी चलेगी ..गाँव में लोग इज़्ज़त से बात करेंगे ,बच्चे ,जवान आते जाते नमस्कार करेंगे ..पर कुछ ही दिन की नौकरी के बाद जो हकीकत से पाला पड़ा वह बिलकुल अलग था ..

मास्टर साहब की इज़्ज़त और रुतबा तो उसी दिन धुल गया था जिस दिन बोरी में किताबें लेकर किसी तरह गिरते पड़ते स्कूल पहुंचाई थी इसके बाद mdm के आलू और सब्जी से भरा झोला टाँगे रोज़ जब स्कूल पहुँचते वो अलग, गैस सिलेंडर जिस दिन लाना ले जाना होता उस दिन गंदे कपडे पहने ही दिन गुजरा करता ..

इधर कुछ दिन से इस पर भी बड़ी सख्ती चल रही थी कि यदि किसी विद्यालय में घास बड़ी पाई गयी ,शौचालय गन्दा पाया गया, कमरो में जाला पाया गया तो कार्यवाही तय मानिए ..और कार्यवाही भी क्या सस्पेंड ..

                 बेसिक की नौकरी में छुटिटयां भले न तय हो, रविवार की छुट्टी पल्स पोलियो नहीं तो फिर blo के लिए  न्यौछावर होना तय मानिए, वहीं 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर आदि आदि तो आपको बच्चों के बीच मनाने ही चाहिए .और हाँ उनमें जल्दी यानि 3/4 घंटे  में निपटने की न सोचना, पूरे दिन का कार्यक्रम का  आदेश आपके लिए पहले से ही तय कर दिया जाएगा और कहीं जल्दी ताला तो नहीं  लगा दिया इसकी निगरानी के लिए अंगौछा धारी नेताटाइप गाँव के नवयुवक, बुजुर्ग के साथ  छुटभैया पत्रकार कैमरे लिए चक्कर मार ही लेंगे ..

हाँ तो देखिये बातों बातों में असली बात तो भूल ही गया,मैं यह कह रहा था की बेसिक में छुट्टियां, वेतन मिलने की तारीख  आदि भले ही न तय हो पर सजा तय है .. हर बात की एक सजा--  "निलंबित यानि सस्पेंड "

सुबह 20 मिनट लेट पहुंचे - "सस्पेंड"

आप एकल विद्यालय में हैं ,सुबह कुछ ऐसा हुआ अचानक छुट्टी की जरूरत पड़ गयी ,विद्यालय बंद रहा  - "सस्पेंड"

गेंहू, धान की बोवाई, कटाई, मेला, सहालग, त्यौहार के आगे -पीछे बच्चे कम संख्या में उपस्थित हुए - "सस्पेंड"

बच्चे किताब नहीं पढ़ पाये  - "सस्पेंड"

बच्चे गिनती नहीं सुना पाये - "सस्पेंड"

बच्चे पहाड़ा नहीं सुना पाये  - "सस्पेंड"

बच्चे "उज्ज्वल", "आशीर्वाद" नहीं लिख पाये  - "सस्पेंड"

MDM मीनू के अनुसार नहीं  बना - "सस्पेंड"

MDM नहीं बना - "सस्पेंड"

फल नहीं बंटा - "सस्पेंड"

आदि आदि आदि ...

    मतलब बस यह कि कोई गाड़ी आकर रुकी नहीं कि आप स्वयं को सस्पेंड मान लें ..बल्कि कभी - कभी तो यह लगता है कि किसी अधिकारी या अधिकारी टाइप के आने पर कोई कोशिश करना भी व्यर्थ है आप उन साहब के इंट्री करते ही अपना झोला झंडा उठाकर उनको विद्यालय की चाभियां देते हुए हाथ जोड़कर साफ़ साफ़ पूछ लें कि -"साहब आप ये चाभियां लीजिये और  हमें इतना भर बता दीजिये की सस्पेंसन लेटर लेने कब आ जाये .."

क्योंकि आप कहाँ - कहाँ और किस -किस मापदंड पर खरे उतारेंगे वैसे भी अंत में होना यही है ।

तो भैया हाल यह है कि सस्पेंड होने का डर इस कदर दिलो -दिमाग पर छाया रहता है कि अधिकांश स्कूलों के हेड मास्टर या इंचार्ज दिन भर बरामदे में एक नज़र गेट की ओर गड़ाये बैठे रहते हैं कि कहीं कोई चेकिंग करने आ तो नहीं गया ..और यदि किसी समय कक्षा में व्यस्त भी हुए तो उनके कान में किसी मोटर साईकिल या कार की आवाज़ सुनायी पड़ते ही उनका दिल ऐसे घबरा जाता है की अब पूछिये मत .और यदि वह गेट की तरफ मुड़ गयी तब तो चेहरा ऐसा स्याह सफ़ेद की काटो तो खून नहीं ..

    कुल मिलाकर अब जाकर यह समझ आया कि बचपन की समझ वाकई नासमझ होती है तब की आँखों में बसा दुनिया के सबसे ताकतवर इंसान मास्टर साहब आज चूहे से भी छोटे नज़र आते हैं जो एक एक पल डर डर के काटते हैं और जिनके लिए छुट्टी की घंटी एक ठंडी सांस के साथ यह अहसास देती है कि चलो आज का दिन कट गया।

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

शौचालय अभियान के नारे




घर की इज्जत बाहर न जाए,
शौंचालय घर में ही बनवाए ||


सुखीराम अब छोडो झाड़ी,
शौंचालय बनवा डालो पिछवाड़ी ||


माँ बहनों को होगी तभी सुविधा,
जब शौंच जाने में ना हो कोई दुविधा ||


लाइन किनारे बैठी चाची,
ट्रेन आई तो उठी हगासी ||


घर में जो शौंचालय बनवाए,
माँ बहनों की लाज बचाए ||


बेटी ब्याहो उस घर में,
शौंचालय हो जिस घर में ||


बहुत हो चुका अब ना करेंगे,
खुले में शौंच को बंद करेंगे ||


भैया भाभी शर्म करो,
खुले में हगना बंद करो ||


आँखों से हटाओ पटटी, 
खुले में न जाओ टटटी ||


लोटा बोतल बंद करो, 
शौचालय का प्रबन्ध करों ||


खुले में शौच, 
पिछड़ी हुर्इ सोच ||


खुले में शौच, 
जल्दी मौत ||


मेरी बहना मेरी माँ, 
खुले में जाना ना ना ना…. ||


शौचालय का करो प्रयोग, 
स्वच्छ रहो और बनो निरोग ||


मेरा सपना, घर परिवार का सपना,  
शौचालय  उपयोग ही, सम्मान है अपना ||


गुरुवार, 3 अगस्त 2017

कैसा होता है सरकारी स्कूल में पढ़ाना



सरकारी स्कूल में पढ़ाना सिर्फ पढ़ाना भर नही होता यह पढ़ना होता है हालात को जिनमें हमारे बच्चे रह रहे हैं जी रहे हैं.एक ही क्लास में एक को बीस तक पहाड़ा याद है दूसरे को गिनती की समझ तक नही है | मानसिक स्तर पर देखा जाए तो हर कक्षा में कम से कम पाँच ग्रुप बनेंगे | बच्चों पर हाथ उठाना बिलकुल अच्छा नही लगता, चाहती हूँ कि वो स्कूल से डरें नहीं स्कूल को प्यार करें मगर कैसे ? मैं उनको गिनती सिखाने की कोशिश करती हूँ वो खिड़की से झूल रहे होते हैं | मैं वर्णमाला की पहचान कराना चाहती हूँ वो पेंसिल से कटोरे पर संगीत की प्रैक्टिस में लगे हैं |

मैं चाहती हूँ वो फूल पत्ती तितली बादल बनाएँ पर कहाँ ? न कागज़ है न रंग है | रंग तो ख़ैर कहीं नही है |
चबी चीक्स डिम्पल चिन रोज़ी लिप्स यह सब परी कथा की बातें हैं | इनके कर्ली हेयर में सालों से तेल नही पड़ा , बुरी तरह उलझे हुए हैं, पिछले साल की यूनिफॉर्म में एक भी बटन सलामत नही है |

इनकी आँखों में हल्का पीलापन है | कई बार ये कंजेक्टिवाइटिस का शिकार भी दिखती हैं | धान रोपने की वजह से पैर की उँगलियों में सड़न हो गई है | दर्द भी है.खेल-खेल में ये अक्सर चोटिल हो जाती हैं |

मैं उनके साथ सख्त होने की कोशिश करना चाहती हूँ लेकिन असफ़ल रहती हूँ | उनके साथ तो ज़िन्दगी ही इतनी सख़्त है |

स्कूल का हैण्डपम्प एक गड्ढे में है जिसमें बरसात का पानी भरा है | उस नल का पानी पीने का जी नही करता लेकिन उन बच्चों के बीच घर से ले जाई गई बोतल का पानी पीना मुझे भीतर तक अश्लील दिखने के अहसास से भर देता है |

जिस बच्चे को कॉपी न होने के कारण डपट कर पिता को बुला कर लाने को कहती हूँ उसके पिता ही नही हैं.
मैं सन्न हूँ |

"मैडम बप्पा कहिन हैं पइसा होइ तब आधार कार्ड बनवाय देहैँ."
"बप्पा क्या काम करते हैं गोलू ? मैं बेख्याली में पूछती हूँ.
का करैं?कमवै नाय लागत है…"

पिता इस समय खाली हाथ हैं पैसे से भी और काम से भी.

कुछ बच्चे क्रूर शब्दों में कहूँ तो मन्द बुद्धि हैं ये अतिरिक्त ध्यान चाहते हैं | नही संभव हो पाता | ये प्यार की भाषा समझते हैं बस..

इसलिए हर जगह पीछे पीछे हैं..
पढ़ाने में बाधा होती है तो कभी कभी डांट देती हूँ..
अपनी क्लास में जाओ...

ये रो पड़ते हैं | मैं शर्मिंदगी के अहसास से भर उठती हूँ अपने जंगलीपन पर
इनको मनाती हूँ | ये फिर पहले की तरह मेरे पीछे लग जाते हैं |

ये अक्सर कॉपी कलम नही लाते, मुझे कोफ़्त होती है, कैसे पढ़ाऊँ कैसे लिखना सिखाऊँ लेकिन अक्सर ये कच्चे पक्के अमरूद लाते हैं मेरे लिए, कभी कभी बेर भी, बड़ी मुश्किल से हासिल इन मौसमी फलों में से वो एक भी अपने लिए बचाना नही चाहते |

इनके आई ए एस, डॉक्टर या इंजीनियर बनने का ख़्वाब मैं किन आँखों से देखूँ!

हर रोज बस एक दुआ पढ़कर फूँकती हूँ कि ईश्वर ऐसी मुसीबत में कभी न डाले कि तुम्हारी यह निश्छलता खो जाए.इतने ताकतवर बनो कि हर तकलीफ़ तुम्हारे आगे घुटने टेक दे बस यही एक दुआ.

(मधुलिका चौधरी)
#A Failure Teacher.
Original Post: www.madhyamarg.com/

शनिवार, 27 मई 2017

नयी पेंशन योजना व पुरानी पेंशन योजना में भिन्नता



हमारे बहुत से साथी नयी पेंशन योजना व पुरानी पेंशन योजना में अन्तर नहीं जानते आज मैं आप को इसका अन्तर स्पष्ट करने की कोशिश करूगाँ यदि कोई बिंदु गलत अथवा स्पष्ट ना हो याँ कोई बिंदु छूट रहा हो तो कमेन्ट करें-


क्रमतथ्यपुरानी पेंशननयी पेंशन (N.P.S.)
1G.P.F.पुरानी पेंशन पाने वालों के लिए जी0 पी0 एफ0 सुविधा उपलब्ध है |नयी पेंशन योजना में जी0 पी 0एफ0 नहीं है ।
2.कटौतीपुरानी पेंशन के लिए वेतन से कोई कटौती नहीं होती है |नयी पेंशन योजना में वेतन से प्रति माह 10%की कटौती निर्धारित है ।
3.पेंशनपुरानी पेंशन योजना में रिटायरमेन्ट के समय एक निश्चित पेंशन( अन्तिम वेतन का 50%) की गारेण्टी है |नयी पेंशन योजना में पेंशन कितनी मिलेगी यह निश्चित नहीं है यह पूरी तरह शेयर मार्केट व बीमा कम्पनी पर निर्भर है ।
4.पेंशन प्रदानकर्तापुरानी पेंशन सरकार देती है |नयी पेंशन बीमा कम्पनी देगी ।
5.विवादविवाद की स्थिति में हमे सरकार से लड़ना होगा |यदि कोई समस्या आती है तो हमे सरकार से नहीं बल्कि बीमा कम्पनी से लडना पडेगा ।
6.ग्रेच्युटीपुरानी पेंशन पाने वालों के लिए रिटायरमेंट पर ग्रेच्युटी( अन्तिम वेतन के अनुसार 16.5माह का वेतन) मिलता है |नयी पेंशन वालों के लिये ग्रेच्युटी की कोई व्यवस्था नहीं है ।
7.डेथ ग्रेच्युटीपुरानी पेंशन वालों को सेवाकाल में मृत्यु पर डेथ ग्रेच्युटी मिलती है जो 7पे कमीशन ने 10लाख से बढाकर 20लाख कर दिया है |नयी पेंशन वालों के लिए डेथ ग्रेच्युटी की सुविधा समाप्त कर दी गयी है ।
8.पारिवारिक पेंशनपुरानी पेंशन में आने वाले लोंगों को सेवाकाल में मृत्यु होने पर उनके परिवार को पारिवारिक पेंशन मिलती है |नयी पेंशन योजना में पारिवारिक पेंशन को समाप्त कर दिया गया है ।
9.महँगाई पुरानी पेंशन पाने वालों को हर छ: माह बाद महँगाई तथा वेतन आयोगों का लाभ भी मिलता है |नयी पेंशन में फिक्स पेंशन मिलेगी महँगाई या वेतन आयोग का लाभ नहीं मिलेगा यह हमारे समझ से सबसे बडी हानि है ।
10.लोनपुरानी पेंशन योजना वालों के लिए जी0 पी0 एफ0 से आसानी से लोन लेने की सुविधा है|नयी पेंशन योजना में लोन की कोई सुविधा नही है( विशेष परिस्थिति में कठिन प्रक्रिया है केवल तीन बार वह भी रिफण्डेबल) ।
11.G.P.F.पर आयकरपुरानी पेंशन योजना में जी0 पी0 एफ0 निकासी( रिटायरमेंट के समय) पर कोई आयकर नहीं देना पडता है |नयी पेंशन योजना में जब रिटायरमेंट पर जो जो अंशदान का 60%वापस मिलेगा उसपर आयकर लगेगा|
12.ब्याज दरजी 0पी0 एफ0 पर ब्याज दर निश्चित है |एन0 पी0 एस0 पूरी तरह शेयर पर आधारित है ।


साथियों आशा है आप इस अन्तर को समझेगें और अपने भले -बुरे का विचार जरूर करेगें ।

गुरुवार, 11 मई 2017

प्राथमिक विद्यालयों पर किए जा रहे प्रयोगों पर गोरखपुर की कवयित्री डॉ कुसुम मानसी द्विवेदी का मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को खुला खत

 
मुख्यमंत्री जी ! आपने वो सारे तंत्र आजमा डाले जो अध्यापक को शर्मसार करे
योगी जी आपके लिए पाती….



सन्दर्भ:- अध्यापकों की मानहानि

सचिव ,

 गुरु अरु वैद जो प्रिय बोलहिं भय आस,
राज धर्म तन तीन कर होहि बेगिही नाश।

हमें आपके सलाहकारों,दिशा निर्देशकों से घोर शिकायत है, कोई आपको कुछ सही न तो बताता है न सलाह देता है और आप भी गुजरात में बहुतायत संख्या में बंद किये गए स्कूलों की तर्ज पर मानसिकता वोटबैंक 2019 या और विशेषवर्ग को खुद में विश्वसनीयता पुष्ट करने हेतु बना रहे होंगे,पर क्या कभी सोचा की अगर इसी स्कूल को और बेहतर बनाएं जिससे अध्यापक और बच्चों दोनों का मन लगे ? आपके कितने कर्मचारी हैं जो बिना बिजली ,साफ़ पानी,पंखें के रहते हैं ?
और तो और वाशरूम का उपयोग न तो बालिकाएं कर पाती हैं न बच्चे। इतनी कम मद का बाथरूम आपने किस कार्यालय को अबतक दिया है ?

आप शहर की तरह ,प्राइवेट स्कूलों सा व्यवस्थापन दे कर तो देखिये। बच्चों के बैठने के कमरे और कार्यालय दोनों ही रहने योग्य हों कुछ ऐसा कीजिये। तमाम स्कूलों के कमरे और कार्यालय कालकोठरी समान हैं न हवा न पानी न प्रकाश।

आपके कितने कर्मचारी किस किस विभाग के लोग हैं जो प्राथमिक विद्यालय और उच्च प्राथमिक विद्यालय अध्यापको की जिंदगी अपने ऑफिस में जीते हैं ?

सब स्कूलों की बॉउंड्री के साथ एक चपरासी भी रखिये देखभाल को, आपको पता है कहीं बॉउंड्री नहीं तो कहीं खेल का मैदान नहीं,और 4 दिन की छुट्टियों के बाद स्कूल की दीवारें गालियों से भरी होती हैं । ये आपके वो पत्रकार कभी नहीं बताएंगे जो 10 पास करके कैमरा माइक चरण छूकर पा गये और विद्द्यालय में टीचर से पूंछते हैं आप सिफारिश से आये या नकल से।

एक महिला पत्रकार बिना दुपट्टे के जूनियर विद्यालय में कूदती हुयी दाखिल होती है जहाँ संस्कार स्वरुप आपने जीन्स तक मना कर रखा है। अध्यापक का और महिला अध्यापिका का आदर्श स्वरुप नियमानुसार होता है। निवेदन है कि हमारे स्कूलो में भी वो प्रबुद्ध पत्रकार भेजिए जो डिवेट करते हैं जिन्हें भाषा का ज्ञान है।

आपका एक पैरोकार दूध पिलाती माँ की फोटो वायरल कर देता है वाह वाही लूटता है,माँ बनना कितना मुश्किल है आप क्या जानो ,बचपन की कुछ मुश्किल घटना को खुद से और माँ से जोड़कर देखिएगा जरूर समझ आएगा,एक गृह्स्थ महिला जो बच्चे की तबियत या अन्य किसी परिस्थिति में रात में न सो पायी तो दिन में काम पूरा करके सो गई पर जो उसके साथ कार्यरत भी है चौतरफा जिम्मेदारियों के निर्वहन में है पल भर को दूध् पिलाता तन शिथिल हो जाये तो ये बवंडर ?

अब विद्द्यालय में आपके सचिवालय, गन्ना संस्थान और तमाम कार्यालयों जैसे शयनकक्ष कार्यालय से लगे तो होते नहीं।

गांव का एक प्रधान भी अध्यापक को अनुपस्थित करने की चेतावनी देता है जिसकी हकीकत ये कि…
मसि कागद छुयो नहीं कलम गह्यो नहीं हाथ।।
लेखपाल से लेकर फ़ूड डिपार्टमेंट का छोटा कर्मचारी भी चेक करने आता है विद्द्यालय,आपने इस आदर्श को दरकिनार कर दिया कि…
गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूं पांय।।

आपने वो सारे तंत्र आजमा डाले जो अध्यापक को शर्मसार करे।

हर विभाग में उसके अपने आला ऑफिसर चेक करने जाते हैं। यहाँ कोई भी मुंह उठाये आ जाता है कोई कहता है कि बच्चों की संख्या कम क्यों ? बच्चे रोज बुला के लाओ, तो कोई कहता है सुबह स्कूल आने से पहले बच्चों को बुलाने जाओ। और तो और कोई बिना हस्ताक्षर पहले बनाने के बजाय पढाने लगा तो भी सस्पेंड। उसे मन से अपना कर्म धर्म स्वीकारने की ये सजा ?

आपकी दृष्टि में सारे दोष अध्यापको में हैं। इस मानहानि से तो अच्छा है कि आप सचिवालय में अध्यापकों से झाड़ू पोंछ ही लगवाइए तब शायद आत्मिक संतोष हो।

कोई आंकड़ा हो तो देखवा लीजियेगा जब से बीजेपी बनी मेरे घर के सारे वोट बीजेपी को गये और आपके इस पद पर आसीन होने की ख़ुशी अध्यापको में बेशुमार थी पर अब उतनी ही कुंठा ,निराशा और हताशा दी आपने। एक बड़ा वर्ग जो अध्यापकों का है उसने मुश्किलों का त्रिशूल समझकर चयन किया आप तो ह्रदय शूल साबित हो रहे।

मैं नहीं जानती इस लेख का दुष्परिणाम क्या होगा पर इतना जानती हूँ कि अधिकार न मिले तो अपने कर्तव्यों का हवाला देते हुए अधिकार माँगना चाहिए।

 मैं मन से लेखिका हूँ तो एक और बात है कि…

जो वक़्त की आंधी से खबरदार नहीं हैं ।
वो कुछ और ही होंगे कलमकार नहीं हैं।।


(कवयित्री डॉ कुसुम मानसी द्विवेदी - गोरखपुर)

बुधवार, 3 मई 2017

सर्व शिक्षा अभियान से सम्बंधित नारे




आजकल नामांकन रैलियो का आयोजन हो रहा है आपकी सुविधा के लिए पेश है कुछ नारे।


Slogans 1: बापू जी का था यह कहना, अनपढ़ बनकर कभी ना रहना.

Slogans 2: सब पढे़, सब बढ़े.

Slogans 3: शिक्षित परिवार, सुखी परिवार.

Slogans 4: विकसित राष्ट्र की यही कल्पना, शिक्षित पूरे देश को करना.

Slogans 5: शिक्षा है अतुल्य गहना, इसे हमेशा पहनाते रहना.

Slogans 6: रोटी, कपड़ा और मकान, पर शिक्षा से बनेगा देश महान.

Slogans 7: अज्ञानता का अंधकार मिटेगा, शिक्षा से सुधार होएगा.

Slogans 8: स्कूल जाने ना छूटे कोई बच्चा, आपका यह सहयोग होगा देश के लिए सच्चा.

Slogans 9: तुम मानो मेरा कहना, शिक्षा से कभी दूर न रहना.

Slogans 10: बचपन से ही मेरा सपना, पढ़ना लिखना और पढ़ाना.

Slogans 11: शिक्षित, उन्नत, समझदार, शिक्षा है सुख का आधार.

Slogans 12: शिक्षा की जिम्मेदारी, यही है समझदारी.

Slogans 13: कोई न बच्चा न छूटे इस बार, शिक्षा है सबका अधिकार.

Slogans 14: इस ज़माने में न करे यह भूल, हर बच्चे को भेजो स्कूल.

Slogans 15: अगर एक भी बच्चा छूटेगा, तो संकल्प हमारा टूटेगा.

Slogans 16: हर घर में यह दीप जलाओ, अपने बच्चे को स्कूल पढाओ.

Slogans 17: अनपढ़ होना है अभिशाप, वरना रहोगे अंगूठा छाप.

Slogans 18: लड़का-लड़की एक समान, शिक्षा से दोनों बनेंगे महान.

Slogans 19: घर का मान बढ़ाएंगे, स्कूल में शिक्षा जब पाएंगे.

Slogans 20: दीप से दीप जलाएंगे, देश को साक्षर बनाएंगे.

Slogans 21: शिक्षा वह मजबूत है सीढ़ी, जिससे बढ़ती जाए पीढ़ी.

Slogans 22: सर्व शिक्षा का अभियान, सबको मिलेगा बेसिक ज्ञान.

Slogans 23: पिताजी सुन लो विनती हमारी, पढ़ने की है यह उम्र हमारी.

Slogans 24: हम बच्चों का नारा है, शिक्षा का अधिकार हमारा है.

Slogans 25: पढ़ी लिखी जब होगी माता, घर की बनेगी भाग्य विधाता.

Slogans 26: शिक्षा एक अनमोल रतन, पढ़ने का सब करो जतन.

Slogans 27: जहां ज्ञान का दीप है जलता, वहां अंधेरा कभी न रहता.

Slogans 28: बहुत हुआ अब चूल्हा – चौका, लड़कियों को दो पढ़ने का मौका.

Slogans 29: जहाँ न होता साक्षरता का वास, कैसे होगा उस देश का विकास.

Slogans 30: अपनी बेटी का मान बढ़ाना, हर हाल में अब उसे पढ़ाना.

Slogans 31: परिवार में खुशहाली लाओ, घर में सभी को पढाओ.

Slogans 32: लड़कियों को भी पढाना है, आगे इन्हें भी बढ़ाना है.

Slogans 33: किताबों से प्यार करो, जीवन अपना उद्धार करो.

Slogans 34: किताबों को अपना हथियार बनाओ, ज्ञान लगातार पाते जाओ.

Slogans 35: जो अनपढ़ रह जाता है, वह एक दिन पछताता है.

Slogans 36: ज्ञान हमें जगाता है, शोषण से हमें बचाता है.

Slogans 37: शिक्षा का धन है सबसे न्यारा, कभी न होता इसका बँटवारा.

Slogans 38: पूरे देश की है अब यही आवाज, पढ़ा लिखा हो हमारा समाज.

Slogans 39: होगा तब यह राष्ट्र महान, पढ़ेगा – लिखेगा जब हर इन्सान.

Slogans 40: जाग उठे हैं नर और नारी, शिक्षित होने की सबकी तैयारी. टूटेगा.



पानी जड़ में दीजिए, पत्तियों पर नहीं



इतना तो लोग आतंकवादियों के पीछे नहीं पड़ते जितना आज शिक्षकों के पीछे पड़े हैं।
शिक्षक समय पर विद्यालय नहीं आता, आता है तो पढ़ाता नहीं, खाना अच्छा नहीं बनवाता, फल नहीं खिलाता, झाडू नहीं लगाता, दीवार पर लोगों द्वारा थूकी गयी पीक साफ नहीं करता आदि आदि कान्वेंट स्कूलों से सरकारी स्कूलों की तुलना की जाती है कि वहाँ का बच्चा पढ़ने में तेज होता है।
                       मीडिया भी कमियाँ निकालता है तो केवल शिक्षकों की। कभी फर्जी स्टिंग ऑपरेशन के द्वारा तो कभी स्वयं संपादित चित्र द्वारा।

सबसे पहले तो ये जान लें कि शिक्षक का काम केवल पढ़ाना होता है शेष काम वो दबाव में करता है। 4 रूपया 13 पैसे में भोजन कराता है। जाँच करने वाला केवल ये देखता है कि फलाने अध्यापक ने एम डी एम में 10 बच्चे ज्यादा चढ़ाये हैं उसे ये नहीं पता कि पिछले महीने कोटेदार ने जो 50 किलो का बोरा दिया था उसमें खाद्यान्न केवल 35 किलो था और तो और दो बोरी गेहूँ सड़ गया। कौन देगा इसका हिसाब?? एक शिक्षक ने बच्चे से झाडू क्या लगवा लिया सस्पेंड हो गया। बच्चे को पीट दिया सस्पेंड हो गया।पूरे भोजन में एक छोटा सा आवारा कीड़ा आ गया तो सस्पेंड हो गया। सर पर लटकती तलवार से अपनी गर्दन बचाते हुए किसी प्रकार दिन काटता है।सब कुछ से बचा तो बच्चों की संख्या कम क्यों है उसका जवाब दे।अरे भाई शिक्षक पर अपना शक्ति प्रदर्शन करके सुधार नहीं हो सकता।अगर सुधार करना है तो पावर का केन्द्र शिक्षक को बना दो।
गाँव के सफाईकर्मी को वेतन देने से पहले शिक्षक का प्रमाणपत्र अनिवार्य किया जाय कि उसने विद्यालय में महीने भर साफ सफाई किया है अथवा नहीं।

अभिभावक को किसी भी सरकारी सुविधा का लाभ देने से पूर्व शिक्षक का प्रमाण पत्र अनिवार्य किया जाय किया उसके बच्चे नियमित रूप से विद्यालय आते हैं अथवा नहीं।

जनप्रतिनिधियों से कहा जाय कि वे शिक्षकों द्वारा बताई कमियों को अपनी निधि से दूर करें।
कान्वेंट से तुलना न करें और अगर करें तो गाँव के गरीब अभिभावकों को भी कान्वेंट में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों के बराबर करें, हर स्तर पर।

शिक्षकों को कन्वेंस की सुविधा उपलब्ध करायी जाये या फिर उन्हें आवास उपलब्ध कराये जाँय।
मत भूलिए कि यही शिक्षक पीठासीन बनकर चुनाव जैसा महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करवाता है ।जनगणना में सहयोग करता है।इतने महत्वपूर्ण कार्यों को निर्विघ्न सम्पन्न कराने वाले शिक्षक पर दोषारोपण उचित नही है।सच तो ये है कि दोष शिक्षक का नहीं व्यवस्था का है। बायोमीट्रिक और सीसीटीवी कैमरा भी लगवा दीजिए किन्तु उसे राज्य कर्मचारी का दर्जा और सुविधाएँ भी दीजिए। पुरानी पेंशन बहाल कीजिए ताकि शिक्षक दुकान खोलने के लिए मजबूर नहीं हो।अंत में केवल इतना ही कहूँगा कि

पानी जड़ में दीजिए,पत्तियों पर नहीं।

थोथी दलीलों से काम नहीं चलता चार दिन गाँव के प्राइमरी में तीन कक्षाओं के बच्चों को एक साथ पढ़ाकर देखिए सब समझ में आ जायेगा ।

'जय हिन्द जय शिक्षक'